डूरंड रेखा को लेकर तालिबान-पाकिस्तान में खिंच सकती हैं तलवारें

डूरंड रेखा विवाद ऐसा मुद्दा है जिसने दशकों से अफगानों और पाकिस्तान के बीच अविश्वास बोया है और तालिबान और पाकिस्तान के बीच संबंधों में एक संभावित तकरार की संभावना जगा दी है। इस हफ्ते की शुरुआत में तालिबान जबीउल्लाह मुजाहिद ने पाकिस्तान में एक पश्तो चैनल से बात करते हुए डूरंड रेखा पर पाकिस्तान द्वारा बनाई गई बाड़ पर अपना विरोध जताया। उन्होंने कहा कि नई अफगान सरकार इस मुद्दे पर अपनी स्थिति की घोषणा करेगी। मुजाहिद ने कहा कि बाड़ ने लोगों को अलग कर दिया है और परिवारों को विभाजित कर दिया है। हम सीमा पर एक सुरक्षित और शांतिपूर्ण माहौल बनाना चाहते हैं, इसलिए अवरोध पैदा करने की कोई जरूरत नहीं है।

डूरंड रेखा रूसी और ब्रिटिश साम्राज्यों के बीच 19वीं शताब्दी के खेल की विरासत है जिसमें अफगानिस्तान को अंग्रेजों द्वारा रूस के विस्तारवाद की भय की वजह से के खिलाफ एक बफर के रूप में इस्तेमाल किया गया था। 12 नवंबर 1893 में अफगान शासक आमिर अब्दुल खान और ब्रिटिश सरकार के सचिव सर मार्टिमर डूरंड ने सरहद हदबंधी के समझौते पर दस्तखत किए। दूसरे अफगान युद्ध की समाप्ति के दो वर्ष बाद 1880 में अब्दुर रहमान राजा बने, जिसमें अंग्रेजों ने कई क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया जो अफगान साम्राज्य का हिस्सा थे। डूरंड के साथ उनके समझौते ने भारत के साथ अफगान “सीमा” पर उनके और ब्रिटिश भारत के “प्रभाव के क्षेत्रों” की सीमाओं का सीमांकन किया। डूरंड्स कर्स: ए लाइन अक्रॉस द पठान हार्ट नामक किताब के लेखर राजीव डोगरा के अनुसार सात-खंड के समझौते ने 2,670 किलोमीटर की रेखा को मान्यता दी। डूरंड ने आमिर के साथ अपनी बातचीत के दौरान अफगानिस्तान के एक छोटे से नक्शे पर खींच दी थी। 2,670 किलोमीटर की रेखा चीन की सीमा से लेकर ईरान के साथ अफगानिस्तान की सीमा तक फैली हुई है। इसके खंड 4 में कहा गया है कि “सीमा रेखा” को विस्तार से निर्धारित किया जाएगा और ब्रिटिश और अफगान आयुक्तों द्वारा सीमांकित किया जाएगा। जिसमें स्थानीय गावों के हितों को शामिल करने की भी बात थी।

वास्तव में रेखा पश्तून आदिवासी क्षेत्रों से होकर गुजरती है, जिससे गाँव, परिवार और भूमि का बंटवारा हो जाता है। इसे “घृणा की रेखा”, मनमाना, अतार्किक, क्रूर और पश्तूनों पर एक छल के रूप में वर्णित किया गया है। कुछ इतिहासकारों का मानना ​​है कि यह पश्तूनों को विभाजित करने की एक चाल थी ताकि अंग्रेज उन पर आसानी से नियंत्रण रख सकें। इससे वे खाबेर दर्रे को अपने कब्जे में रखना चाहते थे।

1947 में स्वतंत्रता के साथ भारत-पाक बंटवारा हुआ और उसे डूरंड रेखा विरासत में मिली। इसके साथ ही पश्तून ने रेखा को अस्वीकार कर दिया और अफगानिस्तान द्वारा इसे मान्यता देने से इनकार कर दिया। 1947 में संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के शामिल होने के खिलाफ मतदान करने वाला अफगानिस्तान एकमात्र देश था।

विभाजन के समय खान अब्दुल गफ्फार खान द्वारा – पश्तूनों का एक स्वतंत्र देश की गई एक मांग थी, हालांकि बाद में उन्होंने खुद इस्तीफा दे दिया। फ्रंटियर गांधी की भारत से नजदीकी भी भारत पाकिस्तान के बीच तनावों के तात्कालीन कारणों में से एक था। पश्तून राष्ट्रवाद को भारतीय समर्थन का डर आज भी पाकिस्तान को सताता है जो उसकी अफगान नीति में झलकता है। तालिबान के लिए पाकिस्तान के निर्माण और समर्थन को कुछ लोग इस्लामिक पहचान के साथ जातीय पश्तून राष्ट्रवाद को खत्म करने के कदम के रूप में देखते हैं। लेकिन पाकिस्तान ने जिस तरह से योजना बनाई थी वो पूरी तरह कारगर साबित नहीं हो पाई। अब तालिबान ने काबुल फतह के बादडूरंड रेखा को ही खारिज कर दिया। उन्होंने तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान का निर्माण करने के लिए एक इस्लामी कट्टरपंथ के साथ पश्तून पहचान को भी मजबूत किया, जिसके 2007 से आतंकवादी हमलों ने देश को हिलाकर रख दिया था

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